Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


78. बन्धुल का दांव -पेंच : वैशाली की नगरवधू


सीमान्त पर बन्धुल भारी उलझनों में फंस गया । वत्स - सैन्य ने सीमान्त के निकट ही स्कन्धावार स्थापित करके धान्वन, वन , संकट , पंक, विषम , नीहार आदि सत्र स्थापित किए थे और वह सैन्य छिपकर इन स्थलों पर गति करती थी । इससे यहां स्पष्ट कूटयुद्ध हो रहा था । शत्रु बन्धुल को दूष्य सेना तथा आटविक के द्वारा बार -बार थका डाल रहे थे। वे अवसर पाते ही धावा मारकर सीमान्त का उल्लंघन कर गाय , पशु और खाद्य - सामग्री लूट जाते या नष्ट कर जाते थे। कोसल के जो वीर प्रतिकार के लिए उधर जाते थे, उन्हें सत्रों में छिपकर मार डालते थे । बहुधा वे रात्रि में छापा मारते । लूटपाट करके या आग लगाकर भाग जाते । इससे कोसल सैनिक रात को सो ही न पा रहे थे। बहुधा चमड़े के खोल पैरों में बांधे हुए सैकड़ों हाथियों के द्वारा वे कोसल छावनी में घुसकर सोते हुए सैनिकों को कुचलवा डालते थे।

इन कठिनाइयों के कारण बन्धुल को बहुत ही सावधान रहना पड़ता था । पर उसकी दूसरी कठिनाई यह थी कि राजधानी से न तो उसे सूचना ही मिल रही थी , न सैन्य , न रसद । रसद समाप्त हो रही थी , कोष खाली हो चुका था , सेना अस्त -व्यस्त हो रही थी और बार- बार पत्र भेजने पर भी राजा सहायता नहीं भेज रहा था । वास्तव में यह विदूडभ की अभिसन्धि का परिणाम था । फिर भी बन्धुल को चरों के द्वारा इस अभिसन्धि का पता चल गया । उसने सीमापाल को सीमान्त की गतिविधि देखने की व्यवस्था सौंपकर श्रावस्ती की ओर अत्यन्त प्रच्छन्न भाव से प्रयाण किया । जिस दिन राजा का श्रावस्ती से निष्कासन हुआ , वह श्रावस्ती पहुंच गया था । उसने छद्मवेश में अपनी आंखों से राजा का निष्कासन देखा। वह निरुपाय था । सेना उसके हाथ में न थी । विदूडभ की सम्पूर्ण अभिसन्धि वह जान गया । कारायण का प्रबन्ध बहुत जाग्रत था और वह प्रकट होकर अब कुछ नहीं कर सकता था । कारायण को उसने राजा के साथ जाते देखा । उसने समझा कि अवश्य ही राजा को कहीं कैद कर दिया जाएगा । उसने सोचा, इसका पता लगाना असम्भव नहीं है। अतः उसने सबसे प्रथम विदूडभ को पकड़ने का विचार किया । यह साधारण कार्य न था ; परन्तु उसने सोचा कि यदि आज नहीं तो फिर कभी नहीं। कारायण की अनुपस्थिति से उसने पूरा लाभ उठाने का निश्चय किया । परन्तु वह जैसा योद्धा था , वैसा कूटनीतिज्ञ न था । फिर भी वह चुपचाप अपने गुप्त वासस्थान पर लौट आया । अपने चुने हुए मित्रों और सहायकों से उसने परामर्शकिया और विदूडभ के अपहरण की एक योजना बनाई ।

राजकुमार विदूडभ इस गहरी कूटनीति में घुसकर भी अपनी रक्षा की ओर से सर्वथा असावधान थे। वह आचार्य अजित केसकम्बली से गुप्त परामर्श करके एक भृत्य के साथ निश्शंक राजपथ पर जा रहे थे। रात्रि का अन्धकार राजपथ पर फैला हुआ था । दो चार जन इधर - उधर आ - जा रहे थे । बन्धुल ने अनायास सुयोग पा लिया । राजपथ के एक

विजन मोड़ पर बन्धुल के एक ही हाथ ने अनुचरों को धराशायी कर दिया और उसी समय उसके तीक्ष्ण जनों ने अंगवस्त्र डालकर राजकुमार को विवश कर दिया । क्षण - भर में यह कार्य हो गया । किसी को कानोंकान खबर नहीं लगी । बन्धुल के तीक्ष्ण जन राजकुमार को हाथोंहाथ उठाकर ले भागे।

परन्तु राजा और राजकुमार दोनों ही का इस प्रकार जो अप्रकाश्य रूप से राजधानी से विलोप हुआ, यह किसी भी मनुष्य ने नहीं जाना । अभिसन्धि की अंगीभूत योजना के अनुसार आचार्य अजित केसकम्बली ने रत्न - होम के बाद पन्द्रह दिन का अवकाश मुख्यानुष्ठान के लिए कर दिया था । साधारण होम और हविष्ययाग चल रहे थे, परन्तु उनमें यजमान के उपस्थित होने की आवश्यकता न थी । राजकुमार का हरण ऐसी गुप्त रीति से हुआ था कि आचार्य अजित को भी आठ पहर तक उसका पता नहीं लगा । परन्तु जब मागध वैद्य जीवक ने आचार्य को सूचना दी कि राजकुमार कल रात से राजधानी में नहीं हैं , तो वे एकबारगी ही चिन्ताकुल हो उठे । वे अधैर्य से कारायण के सीमान्त से लौटने की बाट देखने लगे । साथ ही उन्होंने शून्याध्यक्ष और राष्ट्रपाल को अत्यन्त सावधानी से नगर -रक्षण के लिए सचेत कर दिया ।

दिन के पिछले प्रहर में बन्धुल मल्ल आचार्य अजित के पास गया । जाकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गया । उस समय आचार्य बहुत व्यस्त थे। यज्ञ से सम्बन्धित विविध आदेश विविध जनों को दे रहे थे। बन्धुल को देखकर आचार्य अथ से इति तक विदूडभ के लुप्त हो जाने का सब रहस्य जान गए। भीत भी हुए , परन्तु प्रकट में उन्होंने सेनापति का प्रहर्षित हो स्वागत करते हुए कहा - “ प्रसन्न तो रहा , सम्मोदित तो रहा सेनापति ? सीमान्त में सब भांति कुशल तो है ? ”

“ हां आचार्य, सब ठीक है । भला यहां यज्ञानुष्ठान तो ठीक -ठीक चल रहा है ? ”

“ सब ठीक है बन्धुल ! ”

“ मैंने सोचा, मैं भी तो यह समारोह देखू , इसी से आ गया । ”

“ साधु , साधु सेनापति ! परन्तु अभी तो रत्न -होम सम्पन्न हुआ है । अब दो पक्ष का अवकाश है । हविर्यज्ञ होता रहेगा, फिर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अभिषेक होगा , तब तक ठहरना सेनापति ! ”

“ अवश्य आचार्य, किन्तु महाराज प्रसन्न तो हैं ? ”

“ बहुत थकित हैं बन्धुल ! यज्ञ - समारोह का पूरा भार , फिर व्रत - उपवास , कर्मकाण्ड । उन्हें क्या एक कार्य है ? अब जो अवकाश मिला है भाई, रत्ती - रत्ती काल गान्धारी रानी के लिए राजा ने सुरक्षित रख लिया । दर्शन ही नहीं होते । परन्तु हानि नहीं , अनुष्ठान निर्विघ्न चल रहे हैं । ”

“ यह अच्छा है आचार्य! कुमार विदूडभ तो प्रसन्न हैं ? ”

“ इधर देखा नहीं है बन्धुल ! ”

“ कदाचित् वे भी किसी नववधू के फेर में न हों आचार्य, आप देखते हैं - आय है। ”
हाय, परन्तलानी नादानों को

“ हां - हां , बन्धुल ! आचार्य हंस पड़े । बन्धुल भी हंसे , परन्तु दोनों ने दोनों को जलती आंखों से देखा। आचार्य ने कहा

“ तो बन्धुल सेनापति, देख रहे हैं , यज्ञ -व्यवस्था में बहुत व्यस्त हूं। आहार , विश्राम का समय भी नहीं मिलता। ”

“ तो आचार्य विश्राम करें , मैं भी चला । ” बन्धुल अभिवादन करके चल पड़ा।

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